क़ुर्बत की अर्ज़

Harpreet Singh · · Poetry

आग से डर लगता था, अब जलने का जी है
जंजीरें हाथ में, पर चलने का जी है
इस कड़ियों की दुक़ान से, बिक जाने का जी है
और खुद की खुदाई के आगे, झुक जाने का जी है

अंगारे हों या देखक्ति आग, पिघल जाने का जी है
खाई हो या दरिया की देहक, दौड़ जाने का जी है
तू चाहे किसी और की है,
तेरी क़ुर्बत में, सुलघ जाने का जी है

उस दौर की फ़िज़ाओं में, हवा हो जाऊं गर मैं
इस अँधेरे तबरेज़ से पहले, फना हो जाऊं गर मैं
इस आज की कुबेरी से, फ़कीर हो जाऊं गर मैं
उस बीते इतिहास की, इक लकीर हो जाऊं गर मैं

उस कर्म की दौड़ से, छूट जाऊं गर मैं
वो शांत जटाओं में, लौट पाऊं गर मैं
ऐ जान-इ-वफ़ा,
उस आहट की अरज़, तुझसे फिर मिल जाऊं गर मैं

अब तेरा ब्यान भी नहीं दे सकता,
अब तेरा, ब्यान भी नहीं दे सकता,
तू अरसों में ग़ुम है,
या तू घर उसके,
या मेरी यादों में क़ुम है